मेरा असली गहना मेरी बहू!
विधा -- कहानी
शीर्षक -- मेरा असली गहना मेरी बहू!
विषय -- असली आभूषण
लेखिका -- अनिला द्विवेदी तिवारी
सुलोचना जी अपने ओसारे में बैठी, सब्जी काट रहीं थी।
तभी उनकी बहू रूपा उनके पास आई और उसने, उनके हाथ में रूई (कॉटन) रखते हुए कहा,,, "माँ आप बैठे-बैठे ये बाती बना डालिए। लाइए सब्जियाँ मुझे दे दीजिए, मैं काट लूँगी।
सुलोचना जी ने, सब्जी का थाल और चाकू, अपनी बहू रूपा को दे दिया। और उससे रूई लेकर बाती बनाने लगीं।
तभी बाहर से उनकी एक सहेली, रचना जी आईं, उन्होंने घर के बाहर से ही आवाज लगाते हुए कहा,,, "अरे सुलोचना कहाँ हो? आजकल तो तुम नजर ही नहीं आती।"
"आओ रचना, अंदर आओ। आजकल तबियत कुछ ठीक सी नहीं लगती, इसलिए बाहर नहीं निकलती हूँ।"
अंदर आकर रचना जी ने देखा, सुलोचना जी बाती बना रही हैं, तो आते ही उन्होंने कहा,,, "ये क्या तुम तो दीपक-बाती बना रही हो, लेकिन अभी तो तुमने कहा था कि तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है।
तुम्हारी बहू, बीमारी में भी तुमसे काम करवा रही है?"
"नहीं-नहीं रचना, तुम गलत समझ रही हो। मैं अपनी इच्छा से ये कर रही हूँ।
बहू ने मुझे ऐसा करने नहीं कहा था।"
"फिर भी बीमार सास को काम करने से मना तो करना चाहिए था।" रजनी ने चिंगारी फूंकने की कोशिश करते हुए कहा।
"रचना वो मुझे मना करती है, लेकिन मुझसे ही हाथ पर हाथ धरे, बैठे नहीं रहा जाता, बस इसलिए छोटे-छोटे काम मैं बैठे-बिठाए कर देती हूँ।
इससे थोड़ा बहू की मदद भी हो जाती है और खाली बैठे-बैठे मुझे बोरियत भी नहीं होती।"
"चल फिर बढ़िया है, मेरी बहू ने तो काम वाली लगा रखी है, तो मुझे कुछ नहीं करना पड़ता। सारा दिन घर पर आराम करती हूँ। फिर घूमने फिरने निकल जाती हूँ।"
"अच्छा बातों ही बातों में, मै भूल ही गई थी, मैं तुमसे ये पूछने आई थी कि, शाम को तुम्हें बाजार चलना है क्या?
मैं जा रही हूँ, वो बेटे-बहू ने कुछ पैसे दिए हैं कि, मार्केटिंग कर के आ जाऊं।
अपने पसंद का जो भी मुझे चाहिए हो, वो सामान खरीद लूँ।
अभी पिछले ही हफ्ते ये सोने के कड़े लाए थे। (अपना हाथ आगे बढ़ाकर दिखाते हुए कहा)
मैने उन्हें मना भी किया कि मुझे अभी कुछ नहीं चाहिए।
लेकिन उन्होंने भी जिद कर ली कि, नहीं माँ आपको जाना ही पड़ेगा बाजार।
अब क्या करूं बिना मन के ही जाना तो पड़ रहा है।
तुझे भी चलना हो तो तैयार रहना, मैं चार बजे चलूँगी।"
"नहीं, रचना मैं नहीं जाऊंगी। अभी मेरी तबियत ठीक नहीं है। मैने बताया ना तुमको।"
"सुलोचना, मैं समझ सकती हूँ तेरी परेशानी, अभी पैसे ना भी हों तुम्हारे पास, तो तुम मुझसे ले सकती हो।
जब तुम्हारे पास पैसे आ जाएँ तो तुम मुझे लौटा देना।"
"नहीं रचना वो बात नहीं है। अभी मेरा मन नहीं कर रहा, कहीं भी जाने का। फिर मेरे पास अभी सब कुछ है, तो फिजूल में क्यों पैसे खर्च करना।"
"अरे तो पुराने हो चुके सामान को अपनी मेहरी को दे दो!
पर हाँ माफ करना, तुम्हारे यहाँ तो मेहरी है ही नहीं!
ठीक है, फिर तुम नहीं जाओगी तो कोई बात नहीं, जैसी तुम्हारी मर्जी। मैं चलती हूँ। घर का दरवाजा खुला हुआ छोड़कर आई हूँ। बहू-बेटा दोनों अपनी ड्यूटी में चले गए हैं।"
सुलोचना जी की बहू रूपा अपने भीतरी ओसारे में खड़ी सब बातें सुन रही थी।
वह सोच रही थी,,, “दुनिया में कैसे-कैसे लोग होते हैं।
जिन्हें पैसे-रुपए की खनक और ताम-झाम ही अधिक प्यारा होता है। नाते-रिश्ते तो जैसे इनकी नजर में कुछ हैं ही नहीं। बस झूठी शान में जीते रहते हैं।
जैसी ये एक रचना मौसी हैं। इनका वश चले तो ये सबके घरों में महाभारत करवा दें।
भगवान ही मालिक है, इनके बहू-बेटों का! ईश्वर उनकी रक्षा करे। जिस दिन उनके पास इन्हें देने के लिए पैसे नहीं होंगे, उस दिन ये उनके साथ भी बुरा बर्ताव करेंगी।"
अगले ही पल, रूपा ने अपने सास के पास आकर रूई अपने हाथ में लेकर, नाश्ते की प्लेट उनके हाथ में थमाई।
यह कहते हुए कि,,, "माँ पहले आप नाश्ता कर लो, बाद में बातियां बन जाएंगी!"
"अरे बेटा थोड़ी सी ही तो और रह गईं थी, नाश्ता कहीं भगा तो नहीं जा रहा था।"
"भाग नहीं रहा था नाश्ता, लेकिन ठंडा तो हो रहा था या नहीं? इसलिए पहले चुपचाप नाश्ता कीजिए। उसके बाद कोई भी काम!"
सुलोचना जी सोच रहीं थी,,, धन-दौलत, रुपया-पैसा, हीरे-जवाहरात ही कीमती आभूषण नहीं है।
बहू-बेटियाँ संस्कारी, सुशील और समझदार निकल जाएँ, वे भी किसी आभूषण से कम नहीं।
•••
एक सप्ताह बाद ........
सुलोचना जी आज बाहर के चबूतरे पर बैठी अखबार पढ़ रहीं थी।
तभी रचना फिर आई। आते ही पूछा,,, "कैसी हो सुलोचना? आजकल मिलने भी नहीं आ पाती मैं। वो क्या है मैं क्लब जाने लगी हूँ, तो बस शाम को वहीं चली जाती हूँ। वापस आती हूँ, तब तक बहुत देर हो जाती है। इसलिए कई दिनों से इधर नहीं आ पाई।"
"अच्छा किया कुछ सीखोगी वहाँ जाकर।" सुलोचना जी ने कहा।
"अरे वहाँ कुछ सीखते थोड़ी हैं। वो तो सामाजिक मेल-मिलाप, हँसी-मजाक, नाच-गाने सब होते हैं।
चाय-नाश्ते और खाने-पीने सबका इंतजाम होता है वहाँ। कई लोग तो शराब भी पीते हैं।"
"छी छी छी, रचना, फिर तुम्हें वहाँ जाने की भला क्या जरूरत आन पड़ी?"
"अरे वहाँ बड़े-बड़े लोग आते हैं, सब से मुलाकात होती है। बातें होती हैं। एक-दूसरे के विचारों को जानने का अवसर मिलता है। तुम भी चलो तो सब समझ जाओगी।"
"माफ करना रचना, पर अब मैं इस उम्र में क्लब, पार्टियों में नहीं, बल्कि मंदिर जाऊंगी।" सुलोचना जी ने फौरन स्पष्ट कर दिया। ये सब चोंचले मुझे पसंद नहीं हैं।
मेल-मिलाप के लिए हमारे आस-पास लोगों की कमी नहीं है, जो हमें क्लब-पार्टियों में जाना पड़े।" रचना, सुलोचना का दो टूक जबाव पाकर कुछ देर में घर चली गई।
रचना के जाते ही, सुलोचना जी की बहू, उनके लिए चाय लेकर आई और उनसे कहा,,, "लो माँ आपकी चाय तैयार है!"
"ले आई बेटा चाय, आज जल्दी बन गई?"
"हाँ माँ, मैंने सोचा जल्दी चाय बनाकर दे दूँ, ताकि आपको क्लब जाने में देर ना हो! आप रचना मौसी के साथ क्लब जा रही हैं ना?" रूपा ने हँसते हुए कहा,,,
"ठहर शैतान कहीं की! मैं क्लब चली जाऊँगी और तू मेरे बदले में मंदिर चले जाना!
उस रचना की बातों में आकर, तुम भी पता नहीं क्या-क्या सोच रही हो। वह तो पागल हो गई है।
उसके ऊपर दौलत का नशा इस तरह सवार हो गया है कि, उसे अपने आस-पास भी आजकल कुछ दिखाई नहीं देता है।"
कुछ दिनों बाद...
रचना धीरे-धीरे चलती हुई सुलोचना जी के ओसारे में आकर बैठ गईं।
सुलोचना जी ने पूछा,,, "क्या हुआ रचना तुम्हारी तबियत खराब है क्या? बहुत मुरझाई हुई सी लग रही हो!"
"अरे कुछ ना पूछ सुलोचना, सारे घर के काम करते-करते कचूमर बनी जा रही हूँ।"
"क्यों तुम्हारी कामवाली नहीं आ रही क्या?"
"अरे कहाँ की कामवाली वो तो कब का काम बंद कर चुकी है।"
"अरे तो दूसरी काम वाली लगा लो ना! तुम्हारे लिए कौन सी बड़ी बात है!"
"जब पैसे होंगे तब ना काम वाली लगाऊंगी!"
"तुम्हारे तो बहू-बेटा दोनों कमा रहे हैं रचना! पैसों की क्या तंगी?"
"सुलोचना बेटे-बहू का दूसरे शहर में ट्रांसफर हो गया है।
पहले तो कुछ दिन तक रोज आते-जाते रहे, फिर वहीं मकान ले लिया तो हफ्ते में आने लगे।
अब कुछ दिन पहले, वहीं मकान खरीद लिया तो आना-जाना बिल्कुल बंद कर दिया। जो पैसे देते थे वह भी बंद कर दिए, ये कहकर कि दो-दो घरों का खर्च वे एक साथ नहीं उठा सकते।"
"तुम भी तो वहाँ रहने गई थी, तो वापस क्यों चली आई?
सब एक साथ रहोगे तो कम खर्च होगा। दो जगह अलग-अलग चूल्हा जलने से खर्च तो बढ़ेगा ही। तुम्हारे बेटा-बहू भी गलत नहीं कह रहे।"
"सुलोचना, तुम किस्मत वाली हो, जो तुम्हें ऐसी बहू मिली है।
मैं ही गलत थी जो कपड़े आभूषणों की चकाचौंध में अंधी हो चुकी थी।
मैं वहाँ से इसलिए वापस आ गई, क्योंकि अपनी बहू को बेटे से कहते हुए सुन लिया था कि,,, ’अभी हम कामवाली की छुट्टी कर देते हैं, माँ पूरा दिन खाली रहती हैं तो वे घर के काम कर लेंगी।
हमारे घर की ईएमआई भी तो देनी पड़ती है, सब कुछ एक साथ कैसे हो पाए?
या फिर माँ से बोल दो तो पुराना घर बेचकर हमें पैसे दे दें तो हम अपने मकान का कुछ कर्ज चुका दें!’
लेकिन बेटे ने उसको एक शब्द नहीं बोला कि गलत है, उसने भी यही कहा,,, "माँ से बात करके देखता हूँ।"
अगले रोज मैने ही बोल दिया,,, "बेटा मुझे मेरे पुराने घर पर पहुँचा दो। मेरा मन यहाँ नहीं लग रहा।"
फिर मुझे बैठा दिया यहाँ आने वाली गाड़ी में साथ आने की जरूरत भी नहीं समझी।
"अब तुम्हीं बताओ सुलोचना, मैं कैसे घर बेच देती? इसमें मेरे पति की यादें जुड़ी हैं। सारा रुपया जेवर तो बेटे की शादी और पढ़ाई लिखाई में खर्च कर दिया था यह सोचकर कि असली आभूषण तो परिवार की खुशियाँ और बेटे की शिक्षा-दीक्षा ही है। मुझे नहीं पता था कि...!"
"मौसी जी आप चिंता मत कीजिए, आपकी दूसरी बहू और बेटा तो हैं यहाँ।
अब से आप हमारे साथ यहीं रहकर खाना खाइए। आपके घर जितना खाश तो नहीं बनेगा, लेकिन हम भूखे भी नहीं रहेंगे।
और हाँ आप अपने घर के सारे कमरों में ताले बंद कर दीजिए। एक कमरा खुला रखिए उसी में अपने सारे जरूरत का सामान रख लें।
आपकी समस्या खत्म हो जाएगी। रोज-रोज सारे घर की सफाई करने की आपकी उम्र नहीं है।"
"सुलोचना असली आभूषण तो तुम्हारी बहू है। मेरी नजरें ही खोटी थी, जो मैं तुम्हें भी पाठ पढ़ा रही थी।"
"कोई बात नहीं रचना, देर आए दुरुस्त आए! खैर मेरी बहू तो, मेरी नजर में शुरू से ही सच्चा आभूषण थी।"
•••
Mohammed urooj khan
30-Jan-2024 12:11 PM
👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾
Reply
Milind salve
28-Jan-2024 04:41 PM
Nice one
Reply
Madhumita
28-Jan-2024 03:56 PM
V nice
Reply